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Padebaba

Friday, August 26, 2011

उधार by अज्ञेय---by Sachchidananda Hirananda Vatsyayana 'Agyeya



           उधार

सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गयी थी
और एक चिड़िया अभी-अभी गा गयी थी।
मैंने धूप से कहाः मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार ?
चिड़िया से कहाः थोड़ी मिठास उधार दोगी ?
मैंने घास की पत्ती से पूछाः तनिक हरियाली दोगी-तिनके की नोक-भर ?
शंखपुष्पी से पूछाः उजास दोगी-
किरण की ओक-भर ?
मैंने हवा से माँगाः थोड़ा खुलापन-
बस एक प्रश्वास,
लहर सेः एक रोम की सिहरन-भर उल्लास।
मैंने आकाश से माँगी
आँख की झपकी-भर असीमता उधार।

सब से उधार माँगा, सब ने दिया।
यों मैं जिया और जीता हूँ
क्योंकि यही सब तो है जीवन-
गरमाई, मिठास, हरियाली, उजाला, गन्धवाही मुक्त खुलापन
लोच, उल्लास, लहरिल प्रवाह,
और बोध भव्य निर्व्यास निस्सीम काः
ये सब उधार पाये हुए द्रव्य।

रात के अकेले अन्धकार में सपने से जागा जिस में
एक अनदेखे अरूप ने पुकार कर मुझ से पूछा था, ‘‘क्यों जी,
तुम्हारे इस जीवन के
इतने विविध अनुभव हैं
इतने तुम धनी हो,
तो मुझे थोडा प्यार दोगे-उधार-जिसे मैं
सौ-गुने सूद के साथ लौटाऊँगा-
और वह भी सौ-सौ बार गिन के-
जब-जब मैं आऊँगा ?

मैंने कहाः प्यार ? उधार ?
स्वर अचकचाया था, क्योकि मेरे
अनुभव से परे था ऐसा व्यवहार।
उस अनदेखे अरूप ने कहाः ‘‘हाँ,
क्योंकि ये ही सब चीज़ें तो प्यार हैं-
यह अकेलापन, यह अकुलाहट, यह असमंजस, अचकचाहट
आर्त अननुभव,
यह खोज, यह द्वैत, यह असहाय
विरह-व्यथा,
यह अन्धकार में जाग कर सहसा पहचानना
कि जो मेरा है वही ममेतर है।
यह सब तुम्हारे पास है
तो थोड़ा मुझे दे दो-उधार-इस एक बार-
मुझे जो चरम आवश्यकता है।

उस ने यह कहा,
पर रात के घुप अँधेरे में
मैं सहमा हुआ चुप रहा; अभी तक मौन हूँ:
अनदेखें अरूप को
उधार देते मैं डरता हूँ
क्या जाने
यह याचक कौन है !

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