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Padebaba

Sunday, May 15, 2011

इंद्रधनुष सतरंगी नभ में



इंद्रधनुष सतरंगी नभ में

पल भर पहले जो था काला 
नभ कैसा नीला हो आया,
धुला-धुला सब स्वच्छ नहाया
प्रकृति का मेला हो आया !

इंद्रधनुष सतरंगी नभ में
सौंदर्य अपूर्व बिखराता,
दो तत्वों का मेल गगन में
स्वप्निल इक रचना रच जाता !

जहाँ-जहाँ अटकीं जल बूंदें
रवि कर से टकराकर चमकें,
जैसे नभ में टिमटिम तारे
पत्तों पर जलकण यूँ दमकें !

जहाँ-तहाँ कुछ नन्हें बादल
होकर निर्बल नभ में छितरे,
आयी थी जो सेना डट के
रिक्त हो गयी बरस बरस के !

पूरे तामझाम संग थी वह
काले घन ज्यों गज विशाल हो,
गर्जन-तर्जन, शंख, रणभेरी
चमकी विद्युत, तिलक भाल हो !

पंछी छोड़ आश्रय, चहकें
मेह थमा, निकले सब घर से
सूर्य छिपा था देख घटाएँ
चमक रहा पुनः चमचम नभ में !

जगह जगह बने चहबच्चे
फुद्कें पंछी छपकें बच्चे,
गहराई हरीतिमा भू की
शीतलतर पवन के झोंके !

हमने मौत रानी से कहा …

अन्य गुणों के अतिरिक्त, भारतवर्ष अतिथि-सत्कार के लिए भी प्रसिद्ध है ;
प्रस्तुत कविता में हमारी चौखट पर हमसे मौत रानी मिलने आयीं तो क्या कुछ
हुआ , एक छोटी सी हास्य कविता के माध्यम से , आप तक पहुंचा रहा हूँ , आशा
है आपको पसंद आएगी ..  अतिथि यदि मनपसंद न हो और सख्त हो तो टालना आसान
नहीं होता , अब आ ही गयीं थीं ..हमने मौत रानी से कहा …

आई हो तो पास बैठो पल दो पल ओ मौत रानी
बताओ क्या लायें कुछ चाय नाश्ता कॉफ़ी पानी
मौत रानी बोलीं मुझे कुछ नहीं चाहिए
आखरी कोई इच्छा हो तो बतलाइए
हमने कहा ऐसी भी किया जल्दी है बताइए
पंखा चला देता हूँ आराम फरमाइए
त्योरी चढ़ाकर वो बोलीं बात करते हो प्यारे
भैंसा साथ लायी हूँ झट चढ़ जाईये

हमारे यहाँ टाइम ऑफिस का सिस्टम ज़रा सख्त है
याद आया होने वाला लंच का भी वक्क्त है

मौका पाते खाने का प्रस्ताव हमने रख दिया
कहा हाथ धोके डाइनिंग टेबल पर आजाइए
मना वो भी कर न सकीं भूख लग आई थी
हमसे बोलीं भैंसे को भी चारा डलवाइये
हम भी कहाँ कम थे कहा भैंसा कबसे चर रहा
पड़ोस की भैंस के साथ टाइम पास कर रहा
खाने की महक के रस्ते टेबल पे वे आगईं
देखते देखते रखा सारा खाना खा गयीं
डकार लेते वो बोलीं पानी तो ले आइये
पेट में जगह है बाकी स्वीट डिश लाइए
खोज-बीन कर हम मिठाई लेके आते हैं
बर्फियों के संग टाटा बाय कर आते हैं

इस तरह हमने मौत रानी को लौटाया है
पिछली दिवाली की मिठाई से पटाया है

Monday, May 9, 2011

एक राम ढूंढता हूँ

सिर्फ भवनों और सड़को की जमावट है, कहलाता है शहर है,
यहाँ वृक्षों की शीतल छाँव और शहर में गाँव ढूँढ़ता हूँ |१|
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ओढ़ना कफ़न पर तिरंगा होता है बिरलो का सुभाग,
मातृभू पर कुर्बान जाऊं, नित ही ऐसा दांव ढूँढ़ता हूँ |२|
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मानूँ है सब यथा सुखी, है सब साधन सुविधा उपलब्ध,
देव निवास कर सके, ऐसा एक दर धाम ढूँढ़ता हूँ |३|
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है सब प्राणी ईश्वर की संतान, है हर शरीर में ईश्वर का वास,
इससे एकमय हो गया हो, ऐसा एक भी, इंसान ढूँढ़ता हूँ |४|      
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थोड़ा कुछ जो संतोष है, जीवन में भगवान का प्रसाद है,
बनी रही कृपा उसकी, मौके होता रहे ऐसे अविराम, बार बार ढूँढ़ता हूँ |5|
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जीवन बीत रहा दौड़ भाग कर, हर काम ईश्वर का  काम है,
करूँ मन भर के आभार ईश का, ऐसा एक विराम ढूँढ़ता हूँ |६|
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इच्छाए, चिंताए कभी कम न होगी, है ये अनंत गागर,
विलोपन हो या पा जाऊं सारी प्यास, ऐसा मगर एक सागर ढूँढ़ता हूँ |७|
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है अनंत कथा इस खोज की, मनुजतन फिर मिला इसलिए,
खोजता हूँ फिर वही, वही इक राम ढूँढ़ता  हूँ |८|      

Sunday, May 8, 2011

हर दिल में कैद है इक दरिया मुहब्बतों का

हर दिल में कैद है इक दरिया मुहब्बतों का
बांधे न बांध जिसको सागर की हो तमन्ना !

कदमों में कैद राहें मंजिल का पता पूछें
थक कर नहीं थमे गर साहिल की हो तमन्ना !

हर दिल बना है भिक्षु हर दिल तलाशता है
सब कुछ लुटा दे जिसको उल्फत की हो तमन्ना !

हाथों को यूँ उठाये तकता है आसमां को
खुद पर यकीन कर जो जन्नत की हो तमन्ना !

तकदीर के भरोसे तदबीर से है गाफिल
दिल में रहे किसी के गर रब की हो तमन्ना !







कुछ बातें अनकही थी
कह दी तेरी आंखो ने
कुछ रिश्ते अनबने थे
बन गए तेरी बातों से

कुछ रातें अधजगी थी
सो गई तेरे ख्वाबों मे
मेरे सपने बिखरे थे
बुन गए तेरे धागों मे

मेरे कदम रूके हुए थे
चल दिए तेरी मंजिल को
जिन्दगी उलझी हुई थी
सुलझ गई तेरी बाहों मे

Wednesday, May 4, 2011

1.हर एक नदिया के होंठों पे समंदर का तराना है,
यहाँ फरहाद के आगे सदा कोई बहाना है
वही बातें पुरानी थीं, वही किस्सा पुराना है,
तुम्हारे और मेरे बीच में फिर से ज़माना है



2.तु मुझको मिल नहीँ सकती मैँ तुझको खो नही सकता
तेरी रुसवाइयोँ से भी मुझे कुछ हो नही सकता
तु क्या समझे मेरे दिल पर हुए हैँ वार कितने ही
मैँ हरगिज चोट फिर से और कोई खा नही सकता।

कैसा यह गोरख धंधा है



यह कैसा गोरख धंधा है
अंधे को ले चला अंधा है,
‘राजा’ को इसने महल दिया
रोटी को तरसे बंदा है I

यहाँ पैसे वाले एक हुए
धन के बल पर नेक हुए,
मिलजुल कर सब मौज उड़ाते
शर्म बेच कर फेक हुए I

हड़प लिये करोड़ों गप से
जरा डकार नहीं लेते,  
अरबों तक जा पहुंची बोली
बस बेचे देश को देते I  

है जनता भोली विश्वासी  
थोड़े में ही संतोष करे
सौंप दी किस्मत जिन हाथों में
वे सारे अपनी जेब भरें I

सदा यही होता है आया
कुछ खट-खट कर श्रम करते
कुछ शातिर बन जाते शासक
बस पैसों में खेला करते I

जागें अब भी कुछ तो सोचें
अपनी किस्मत खुद ही बदलें
जेल ही जिनका असली घर है
ऐसे राजाओं से बच निकलें I

एक पत्र मेरी प्रेमिका के नाम




Tuesday, May 3, 2011

ये हुस्न तेरा ये इश्क़ मेरा

ये हुस्न तेरा ये इश्क़ मेरा
रंगीन तो है बदनाम सही
मुझ पर तो कई इल्ज़ाम लगे
तुझ पर भी कोई इल्ज़ाम सही

इस रात की निखरी रंगत को
कुछ और निखर जाने दे ज़रा
नज़रों को बहक जाने दे ज़रा
ज़ुल्फ़ों को बिखर जाने दे ज़रा
कुछ देर की ही तस्कीन सही
कुछ देर का ही आराम सही

जज़्बात की कलियां चुनना है
और प्यार का तोहफ़ा देना है
लोगों की निगाहें कुछ भी कहें
लोगों से हमें क्या लेना है
ये ख़ास त'अल्लुक़ आपस का
दुनिया की नज़र में आम सही

रुसवाई के डर से घबरा कर
हम तर्क-ए-वफ़ा कब करते हैं
जिस दिल को बसा लें पहलू में
उस दिल को जुदा कब करते हैं
जो हश्र हुआ है लाखों का
अपना भी वही अन्जाम सही


रंगीन तो है बदनाम सही
मुझ पर तो कई इल्ज़ाम लगे
तुझ पर भी कोई इल्ज़ाम सही
Practical Exam date is declared
Follow this link http://www.mu.ac.in/B.%20Sc.%20_Information%20Technology_%20Sem-VI.pdf

Monday, May 2, 2011

हास्य व्यंग


निन्दक नियरे राखिए....' से प्रेरित होकर मेरे परिवार वालों ने मेरा विवाह इस सुकुमारी से कर दिया। इस बात को दस वर्षों से अधिक हो गए। आज तक इस 'गठबंधन धर्म' के पालन मे सैकड़ों समझौते किए हैं। इतने सालों के अनुभव से मैं यह दावे से कह सकता हूँ कि दोहा लिख देने से कहीं ज्यादा मुश्किल होता है दोहे पर जीवन का अनुसरण करना। गत दस वर्षों से यह सुकुमारी मेरे जीवन में स्थायी विपक्ष की भूमिका निभा रही है। घर संसद बन गया है। और राजनीति जोरों पर है। रोज नए दाँव खेले जाते हैं और रोज नए पैतरे बदले जाते हैं। अजब प्रेम की गजब कहानी। 

मैं स्वयं को इस घर की राजनीति में सत्ता पक्ष का दर्जा देता हूँ। मजेदार बात यह है कि श्रीमतीजी की भी यही राय है स्वयं अपने बारे में। विरोध यहीं से शुरू होता है... गद्दी का सवाल है भई!! विवाद किसी न किसी बात पर आए दिन हो ही जाता है। हमारे घर संसद सत्र बारहों महीने चलता है। न कोई छुट्टी, न कोई अवकाश। यहाँ तक कि कोई छोटा या बड़ा नेता भी मर जाए तो भी दो मिनट तक का मौन नसीब में नहीं। अपने यहाँ बहस के लिए मुद्दों की आवश्यकता नहीं होती... उनके निरर्थक तर्कों को शांत करने के उद्देश्य से मैंने कहा। उनके तीखे नयनों ने मुझे इस तरह घूरा मानो कह रही हो सदन में हो रही किसी बहस के लिए मुद्दों के होने की क्या आवश्यकता? बहस अपनी जगह है और मुद्दे अपनी जगह। 

हमारा विवाह संजय गाँधी के मरने के बाद हुआ था इसलिए हमने बिना किसी दबाब या धमकी से 'हम दो हमारे दो' को अंगीकृत किया और इसी के विज्ञापन की तरह कृत्रिम मुस्कराहट लिए एक फोटो हम चारों ने खिंचवाया था। दीवार पर टँगी फोटो की धूल को साफ करें तो बच्चों की मासूम शक्लें दिखाई देती हैं और उनकी यह मासूमियत, अफसोस, सिर्फ फोटों में ही दिखाई देती है।

दरअसल ये शातिर अपनी भूमिकाएँ बदलने मे ऐय्यारों को भी मात दे दें। दल बदलू कहीं के। कभी अपनी बात मनवानी हो तो स्पीकर, ना मानो तो मार्शल बनकर मुझे धक्का देकर कमरे से निकाल देते हैं। और तो और पत्रकार बनकर घर की बातें पड़ोसियों को भी चटखारे ले कर सुनाते हैं। उस दिन मैंने क्या सुना कि छोटा वाला 'सनसनी' की नकल उतारकर पड़ोसिनों को सुना रहा था हम जिसे अपना बाप समझते हैं वो दरसल एक वहशी दरिंदा है... फिर क्या था, मेरे क्रोध की कोई सीमा नहीं रही। मेरा खून खोलने लगा... मानो साक्षात 'इमरजेंसी' गाँधी की आत्मा मेरे अंदर प्रवेश कर गई हो। आव देखा ना ताव दिए दो घुमा के कान के नीचे। गाल लाल हो गए और असली आँसू गिरने लगे। पर मुझे आज भी शक है कि उसे जितना जोर से लगे थे उससे कहीं ज्यादा जोर से वह रो रहा था। 

माँ से विरासत में मिली राजनीति रंग लाई। मुझे घेरने की तैयारी शुरू हो गई। पड़ोसियों के रूप बदले...मानवाधिकारों की बातें होने लगीं। घर में लीबिया जैसे हालात हो गए। विपक्ष बात करने को राजी नहीं था। श्रीमतीजी ने जाटों से प्रेरित होकर घर में घुसने और बाहर निकलने के सारे रास्ते जाम कर दिए। मेरे विरुद्घ विशेषाधिकार प्रस्ताव लाने की तैयारी होने लगी। लोकतंत्र में स्वतंत्र 'प्रेस' पर हमले से सभी बौखला गए थे। ये बात अलग है कि वो पत्रकार जो मन में चाहे ऊलजलूल किस्से बनाएँ। मैंने सार्वजनिक रूप से सदन मे अपनी गलती स्वीकार की। कभी-कभी ये कदम 'कमजोर' लोगों के लिए राजनीतिक रूप से सही होता है, फिर चाहे वो देश का प्रधानमंत्री ही क्यों न हो।

खैर, बात आई गई हो गई, किसी उच्च स्तरीय कमेटी की रिपोर्ट की तरह। यह जीवन भी कबीर के दोहों की तरह है, सुनने में मधुर और सरल, पर अगर असली जिंदगी में उस पर अमल करो तो सिर चकरा जाए। मेरा विपक्ष दरसल स्थायी नहीं है... वह तो घूमता रहता है... चक्की के पाट की तरह और मैं उसमें पिसे जा रहा हूँ। ये कबीर ने मुझ जैसों के लिए ही लिखा था- दुइ पाटन के बीच में साबुत बचा न कोई...कहा था न दोहे पर जीवन का अनुसरण खतरनाक हो सकता है।


Sunday, May 1, 2011

क्या होगा हिंदी का ?

फलसफा ए इश्क

शादी

" प्रार्थना " क्या है ?



Aaram karo


इस चिट्ठे (ब्लॉग) पर प्रकाशित कोई भी रचना मेरे द्वारा रचित नहीं है.......
                                                                                                       धन्यवाद 
                                                                                                       संदीप पाण्डेय 





Vigyan ke Vidyarthi ki kavita


1:   ‎"कोई कब तक महज़ सोचे कोई कब तक महज़ गाये ?
इलाही क्या ये मुमकिन है कि कुछ ऐसा भी हो जाये ?
मेरा महताब उसकी रात के आग़ोश में पिघले
मैं उसकी नींद में जागूं वो मुझमे घुल के सो जाये ..."



2:  ‎"तुम्हारे पास हूँ लेकिन जो दूरी है समझता हूँ
तुम्हारे बिन मेरी हस्ती अधूरी है समझता हूँ
तुम्हे मै भूल जाऊँगा ये मुमकिन है नही लेकिन
तुम्ही को भूलना सबसे ज़रूरी है समझता हूँ"



3: जिन की आखों में सपने हैं,होठों पर अंगारें हैं ,
जिन के जीवन-मृग पूँजी की क्रीडाओं ने मारे हैं,
जिन के दिन और रात रखें हैं गिरवीं साहूकारों पर,
जिन का लाल रक्त फैला है संसद की दीवारों पर,
मैं उन की चुप्पी को अब हुँकार बनाने वाला हूँ .
मैं उन की हर सिसकी को ललकार बनाने वाला हूँ ...



4: ‎"कलम को ख़ून में खुद के डुबोता हूँ तो हँगामा,
गिरेबाँ अपना आँसू में भिगोता हूँ तो हँगामा,
नहीं मुझ पर भी जो खुद की खबर वो हैं ज़माने पर,
मैं हँसता हूँ तो हँगामा,मैं रोता हूँ तो हँगामा ...."