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Padebaba

Wednesday, April 18, 2018

आधुनिक कुलीन लोगों नें अपने बच्चों के नाम और उसके अर्थ पर भी ध्यान देना शुरू किया है जो की एक सराहनीय कदम है | ऐसे ही एक नाम पर आज हम चर्चा करेंगे और वो नाम है -
"कयांग" (Kayaang)
शब्द व्युत्पत्ति - इस शब्द की व्युत्पत्ति पारस (Persia ) के भारतीय पह्लवी भाषा से हुई है | जब पहलवी भाषा प्रचलन में थी तब यह शब्द "कयान" (Kayaan) था जिसका अर्थ "महान राजा" अथवा "महान  योद्धा " होता है | "कयांग" (Kayaang) भी "कयान" (Kayaan) का ही तद्भव है |

अर्थ- महान राजा , महान योद्धा |

Modern aristocrats have restarted taking care of their child's name and its meaning which is an appreciative step. Today we will discuss a one of such kind of name which is "KAYAANG".

Word Origin- The Word "Kayaan" is originated from Indo-Pahlavi Language of Persia. In Pahlavi Language "Kayaan" means " The Great King" or "The Great Warrier". "Kayaang"is derivative of "Kayaan".


महाभिनिष्क्रमण से पूर्व by नागार्जुन



कि इतने में आ पहुँचा एक 
वृद्ध ब्राह्मण, लकुटी वह टेक
उठाकर कंपित दहिना हाथ
लगा कहने जय हो गणराज
नंदिनवर्धन लिच्छविकुल केतु।
सुखी हो दोनों, हो अतिदीर्घ
वीरवर वर्धमान की आयु
सुधीजन का मानस जलजात
कहाँ है अनुज तुम्हारा तात ?
स्पर्श कर उसका मस्तक आज
चाहता देना आशीर्वाद
छू चुकी है अब मेरी आयु
वत्स, जीवन का अन्तिम छोर
सकूँगा देख न, कर लूँ स्पर्श
ज्योति पाये आँखों की कोर
याद आता रह रह छविमान
सुरक्षित चम्पक-तरु-उपमान

स्नेह विह्वल सुन द्विज की बात
हो गया द्रवितवीर का चित्त
उठीं आँखें अग्रज की ओर
मिला तत्क्षण इंगित अनुकूल
बढ़े सुकुमार सँभाल दुकल
सिंह गति से आकर नजदीक
कुब्ज कंधे पर रखकर हाथ कहा,
कहा, या लो, मैं आया तात
स्पर्श में है क्या ऐसी बात !
म्लान पंकज के दल की भाँति
विप्र के होठों की वह कांति
हो उठी थी भास्वर क्षण मात्र
हो उठा था पुलकित कृश गात्र
टेक लकुटी पर दोनों हाथ
और हाथों पर ठोड़ी टेक
रहा गुम थोड़ी देर विवेक
बुढ़ापा खड़ा रहा साकार
स्वयं जाने क्या चीज निहार
सभी चुप थे, सब थे निःस्तब्ध
धरा थी मौन, गगन था मौन
प्रकृति थी स्रमित बोलता कौन
वृद्ध ब्राह्मण का भावावेश
बन गया सहसा अश्रु प्रवाह
धँसी गालों की सीमा लाँघ
गिरी भू पर बूँदों की माल

तोड़कर फिर वज्रोपम मौन
बीरवर बोले, ! मत रोओ विप्र
बता दो आखिर क्या है बात ?
तोड़कर क्यों धीरज का बाँध
हुआ है प्रकट तरल आवेग ?
कौन सी व्यथा, कौन सा खेद
रहे हैं तुमको तात कुरेद ?
लतापत्रांकित पट-परिधान
रहा था कंधे पर से झूल
उठाकर उसका छोर कुमार
पोंछने लगे विप्र के नेत्र
स्नेह पाकर, होकर आश्वस्त
बीर के सिर पर धर कर हाथ
उठाकर ऊपर धुँधली दृष्टि
लटकती भौंहों पर बल डाल
वृद्ध बोला, कुछ क्षण उपरान्त :

तात देखा है मैंने स्वप्न
कि तुम निकले हो सब कुछ छोड़
स्वजन-परिजन से नाता तोड़
हुए हो बिलकुल बे घर बार
जन्म और मृत्यु जरा औ’ रोग
अविद्या, भव, तृष्णा अज्ञान
सभी को कर डाला निर्मूल
नहीं है शूल, नहीं है फूल
किया है तप ऐसा घनघोर
कि यश फैला है चारों ओर
परे करके सुख-सुविधा-भोग
शरण आए हैं लाखों लोग

तात, देखा है मैंने स्वप्न
कि ऐरावत पर चढ़ आए देवेन्द्र
गगन से उतरा है चुपचाप
तुम्हारे पास पहुँचकर आप
परिक्रमाएँ की हैं दो-तीन
उतरासंग एकांस लिए-
वन्दना की है घुटने टेक
और फिर तेरे सिर पर वत्स
तान डाला है अपना छत्र
(अकर्णिक कांचनमय शतपत्र
रहा ज्यों नभ में उलटा झूल)
किंतु तुम शांत दांत अ-विकार
रहे पहले की भाँति निहार
अचंचल हैं दृग थिर हैं ठोर
न उठती है किंचित हिलकोर
देख आकृति निःस्पृह निरेपक्ष
इन्द्र को होता है आश्चर्य
लौट जाता है वह तत्काल
धरा फटती गिरता है वज्र
दिशाओं से उठते तूफान
किंतु तुम लोकाचल के तुल्य
डटे हो अडिग अटल अविकंप
स्वप्न देखा है पिछली रात
बताओ यह सब क्या है तात ?

नहीं सुन सके, उठे तत्काल
नंदिवर्धन को दिखा अनिष्ट
कुँवर से कहा पकड़कर हाथ
तात बकता है जो यह वृद्ध
न देना उस पर कुछ भी ध्यान
टहलने चलें, चलो उद्यान
जामु, लीची, कटहल औ’ आम
शलीफा, कदलीथंभ ललाम...
गणों में ज्यों हम लिच्छवि श्रेष्ठ
फरों में त्यों यह राजा आम
बहुत बैठे हम आयुष्मान !
टहलने चलें, चलो उद्यान

नहीं सुन लेते तुम भी अहा
उठाकर आँख वीर ने कहा
वृद्ध ब्राह्मण आए हैं तात
सुनो कर लेने दो, दो बात
शान्त होगा इनका भी हृदय
पुण्य मेरा भी होगा उदय
टहल आओ तुम देव अवश्य
चित्त होता हो यदि उद्विग्न
देखकर आगत संध्याकाल
बाग-उपवन-पोखर-तालाब
नदी-तट, पथ-पांतर, वन-खेत
पेड़-पौधे, लतिकाएँ-घास
ग्राम की हद, अभिजन-सीमान्त
प्रतीक्षा में रहते, तल्लीन
कि प्रात काल कि सायंकाल  
देखने आएगा भूपाल
पिता वह, हम सब हैं सन्तान
टहल आओ, जाओ तुम तात
हमें कर लेने दो कुछ बात

Friday, August 26, 2011

वीर



22052009
कौन है जो आगे आये?
कौन अपना सर कटाए?
ऐसा कोई वीर है यहाँ कहाँ?
वीर की वसुंधरा,
तू क्यों खडा डरा-डरा?
आगे बढ़ तू आज अपनी जीत कर|
पुकार है यह युद्घ की,
धरा तेरी अशुद्ध की,
ऐसे दुश्मनों का आज अंत कर|
अश्व अस्त्र गज से युक्त,
 तू सारे बन्धनों से मुक्त,,
 साथ तेरे सर्वशक्तिमान है| 
म्रत्यु जब न अंत है,
किसका फिर आतंक है?
सर्वस्व आपना आज दे लड़ा|
खड़ी जो उसकी फौज हो,
प्रचंड तेरी ओज हो,
सनसनी लहू में उसके भर तू दे|
खडग  कटार बाँण से,
तू जैसे भी हो प्राण ले,
वीर तू तभी तो कहलायेगा|
शीश उसका काट तू,
तन को उसके बाँट तू,
युद्घभूमि में रक्त रस बहे|
अंग अंग भंग हो,
न साथी कोई संग हो,
अपने दुश्मनों का ऐसा नाश कर|
जो तर  गया सो जीत है’
जो मर गया तो रीत है,
वीर को सदा जग है पूजता| 

 

उधार by अज्ञेय---by Sachchidananda Hirananda Vatsyayana 'Agyeya



           उधार

सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गयी थी
और एक चिड़िया अभी-अभी गा गयी थी।
मैंने धूप से कहाः मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार ?
चिड़िया से कहाः थोड़ी मिठास उधार दोगी ?
मैंने घास की पत्ती से पूछाः तनिक हरियाली दोगी-तिनके की नोक-भर ?
शंखपुष्पी से पूछाः उजास दोगी-
किरण की ओक-भर ?
मैंने हवा से माँगाः थोड़ा खुलापन-
बस एक प्रश्वास,
लहर सेः एक रोम की सिहरन-भर उल्लास।
मैंने आकाश से माँगी
आँख की झपकी-भर असीमता उधार।

सब से उधार माँगा, सब ने दिया।
यों मैं जिया और जीता हूँ
क्योंकि यही सब तो है जीवन-
गरमाई, मिठास, हरियाली, उजाला, गन्धवाही मुक्त खुलापन
लोच, उल्लास, लहरिल प्रवाह,
और बोध भव्य निर्व्यास निस्सीम काः
ये सब उधार पाये हुए द्रव्य।

रात के अकेले अन्धकार में सपने से जागा जिस में
एक अनदेखे अरूप ने पुकार कर मुझ से पूछा था, ‘‘क्यों जी,
तुम्हारे इस जीवन के
इतने विविध अनुभव हैं
इतने तुम धनी हो,
तो मुझे थोडा प्यार दोगे-उधार-जिसे मैं
सौ-गुने सूद के साथ लौटाऊँगा-
और वह भी सौ-सौ बार गिन के-
जब-जब मैं आऊँगा ?

मैंने कहाः प्यार ? उधार ?
स्वर अचकचाया था, क्योकि मेरे
अनुभव से परे था ऐसा व्यवहार।
उस अनदेखे अरूप ने कहाः ‘‘हाँ,
क्योंकि ये ही सब चीज़ें तो प्यार हैं-
यह अकेलापन, यह अकुलाहट, यह असमंजस, अचकचाहट
आर्त अननुभव,
यह खोज, यह द्वैत, यह असहाय
विरह-व्यथा,
यह अन्धकार में जाग कर सहसा पहचानना
कि जो मेरा है वही ममेतर है।
यह सब तुम्हारे पास है
तो थोड़ा मुझे दे दो-उधार-इस एक बार-
मुझे जो चरम आवश्यकता है।

उस ने यह कहा,
पर रात के घुप अँधेरे में
मैं सहमा हुआ चुप रहा; अभी तक मौन हूँ:
अनदेखें अरूप को
उधार देते मैं डरता हूँ
क्या जाने
यह याचक कौन है !

चिंता / भाग १ / कामायनी --- जयशंकर प्रसाद (Jaishankar Prasad)


हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,
बैठ शिला की शीतल छाँह
एक पुरुष, भीगे नयनों से
देख रहा था प्रलय प्रवाह

नीचे जल था ऊपर हिम था,
एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता
कहो उसे जड़ या चेतन

दूर दूर तक विस्तृत था हिम
स्तब्ध उसी के हृदय समान,
नीरवता-सी शिला-चरण से
टकराता फिरता पवमान

तरूण तपस्वी-सा वह बैठा
साधन करता सुर-श्मशान,
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का
होता था सकरूण अवसान।

उसी तपस्वी-से लंबे थे
देवदारू दो चार खड़े,
हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर
बनकर ठिठुरे रहे अड़े।

अवयव की दृढ मांस-पेशियाँ,
ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार,
स्फीत शिरायें, स्वस्थ रक्त का
होता था जिनमें संचार।

चिंता-कातर वदन हो रहा
पौरूष जिसमें ओत-प्रोत,
उधर उपेक्षामय यौवन का
बहता भीतर मधुमय स्रोत।

बँधी महावट से नौका थी
सूखे में अब पड़ी रही,
उतर चला था वह जल-प्लावन,
और निकलने लगी मही।

निकल रही थी मर्म वेदना
करूणा विकल कहानी सी,
वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही,
हँसती-सी पहचानी-सी।

"ओ चिंता की पहली रेखा,
अरी विश्व-वन की व्याली,
ज्वालामुखी स्फोट के भीषण
प्रथम कंप-सी मतवाली।

हे अभाव की चपल बालिके,
री ललाट की खलखेला
हरी-भरी-सी दौड़-धूप,
ओ जल-माया की चल-रेखा।

इस ग्रहकक्षा की हलचल-
री तरल गरल की लघु-लहरी,
जरा अमर-जीवन की,
और न कुछ सुनने वाली, बहरी।

अरी व्याधि की सूत्र-धारिणी-
अरी आधि, मधुमय अभिशाप
हृदय-गगन में धूमकेतु-सी,
पुण्य-सृष्टि में सुंदर पाप।

मनन करावेगी तू कितना?
उस निश्चित जाति का जीव
अमर मरेगा क्या?
तू कितनी गहरी डाल रही है नींव।

आह घिरेगी हृदय-लहलहे
खेतों पर करका-घन-सी,
छिपी रहेगी अंतरतम में
सब के तू निगूढ धन-सी।

बुद्धि, मनीषा, मति, आशा,
चिंता तेरे हैं कितने नाम
अरी पाप है तू, जा, चल जा
यहाँ नहीं कुछ तेरा काम।

विस्मृति आ, अवसाद घेर ले,
नीरवते बस चुप कर दे,
चेतनता चल जा, जड़ता से
आज शून्य मेरा भर दे।"

"चिंता करता हूँ मैं जितनी
उस अतीत की, उस सुख की,
उतनी ही अनंत में बनती जाती
रेखायें दुख की।

आह सर्ग के अग्रदूत
तुम असफल हुए, विलीन हुए,
भक्षक या रक्षक जो समझो,
केवल अपने मीन हुए।

अरी आँधियों ओ बिजली की
दिवा-रात्रि तेरा नतर्न,
उसी वासना की उपासना,
वह तेरा प्रत्यावत्तर्न।

मणि-दीपों के अंधकारमय
अरे निराशा पूर्ण भविष्य
देव-दंभ के महामेध में
सब कुछ ही बन गया हविष्य।

अरे अमरता के चमकीले पुतलो
तेरे ये जयनाद
काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि
बन कर मानो दीन विषाद।

प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित
हम सब थे भूले मद में,
भोले थे, हाँ तिरते केवल सब
विलासिता के नद में।

वे सब डूबे, डूबा उनका विभव,
बन गया पारावार
उमड़ रहा था देव-सुखों पर
दुख-जलधि का नाद अपार।"

"वह उन्मुक्त विलास हुआ क्या
स्वप्न रहा या छलना थी
देवसृष्टि की सुख-विभावरी
ताराओं की कलना थी।

चलते थे सुरभित अंचल से
जीवन के मधुमय निश्वास,
कोलाहल में मुखरित होता
देव जाति का सुख-विश्वास।

सुख, केवल सुख का वह संग्रह,
केंद्रीभूत हुआ इतना,
छायापथ में नव तुषार का
सघन मिलन होता जितना।

सब कुछ थे स्वायत्त,विश्व के-बल,
वैभव, आनंद अपार,
उद्वेलित लहरों-सा होता
उस समृद्धि का सुख संचार।

कीर्ति, दीप्ती, शोभा थी नचती
अरूण-किरण-सी चारों ओर,
सप्तसिंधु के तरल कणों में,
द्रुम-दल में, आनन्द-विभोर।

शक्ति रही हाँ शक्ति-प्रकृति थी
पद-तल में विनम्र विश्रांत,
कँपती धरणी उन चरणों से होकर
प्रतिदिन ही आक्रांत।

स्वयं देव थे हम सब,
तो फिर क्यों न विश्रृंखल होती सृष्टि?
अरे अचानक हुई इसी से
कड़ी आपदाओं की वृष्टि।

गया, सभी कुछ गया,मधुर तम
सुर-बालाओं का श्रृंगार,
ऊषा ज्योत्स्ना-सा यौवन-स्मित
मधुप-सदृश निश्चित विहार।

भरी वासना-सरिता का वह
कैसा था मदमत्त प्रवाह,
प्रलय-जलधि में संगम जिसका
देख हृदय था उठा कराह।"

"चिर-किशोर-वय, नित्य विलासी
सुरभित जिससे रहा दिगंत,
आज तिरोहित हुआ कहाँ वह
मधु से पूर्ण अनंत वसंत?

कुसुमित कुंजों में वे पुलकित
प्रेमालिंगन हुए विलीन,
मौन हुई हैं मूर्छित तानें
और न सुन पडती अब बीन।

अब न कपोलों पर छाया-सी
पडती मुख की सुरभित भाप
भुज-मूलों में शिथिल वसन की
व्यस्त न होती है अब माप।

कंकण क्वणित, रणित नूपुर थे,
हिलते थे छाती पर हार,
मुखरित था कलरव,गीतों में
स्वर लय का होता अभिसार।

सौरभ से दिगंत पूरित था,
अंतरिक्ष आलोक-अधीर,
सब में एक अचेतन गति थी,
जिसमें पिछड़ा रहे समीर।

वह अनंग-पीड़ा-अनुभव-सा
अंग-भंगियों का नत्तर्न,
मधुकर के मरंद-उत्सव-सा
मदिर भाव से आवत्तर्न।

--- जयशंकर प्रसाद (Jaishankar Prasad)

चिंता / भाग १ / कामायनी --- जयशंकर प्रसाद (Jaishankar Prasad)


हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,
बैठ शिला की शीतल छाँह
एक पुरुष, भीगे नयनों से
देख रहा था प्रलय प्रवाह

नीचे जल था ऊपर हिम था,
एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता
कहो उसे जड़ या चेतन

दूर दूर तक विस्तृत था हिम
स्तब्ध उसी के हृदय समान,
नीरवता-सी शिला-चरण से
टकराता फिरता पवमान

तरूण तपस्वी-सा वह बैठा
साधन करता सुर-श्मशान,
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का
होता था सकरूण अवसान।

उसी तपस्वी-से लंबे थे
देवदारू दो चार खड़े,
हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर
बनकर ठिठुरे रहे अड़े।

अवयव की दृढ मांस-पेशियाँ,
ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार,
स्फीत शिरायें, स्वस्थ रक्त का
होता था जिनमें संचार।

चिंता-कातर वदन हो रहा
पौरूष जिसमें ओत-प्रोत,
उधर उपेक्षामय यौवन का
बहता भीतर मधुमय स्रोत।

बँधी महावट से नौका थी
सूखे में अब पड़ी रही,
उतर चला था वह जल-प्लावन,
और निकलने लगी मही।

निकल रही थी मर्म वेदना
करूणा विकल कहानी सी,
वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही,
हँसती-सी पहचानी-सी।

"ओ चिंता की पहली रेखा,
अरी विश्व-वन की व्याली,
ज्वालामुखी स्फोट के भीषण
प्रथम कंप-सी मतवाली।

हे अभाव की चपल बालिके,
री ललाट की खलखेला
हरी-भरी-सी दौड़-धूप,
ओ जल-माया की चल-रेखा।

इस ग्रहकक्षा की हलचल-
री तरल गरल की लघु-लहरी,
जरा अमर-जीवन की,
और न कुछ सुनने वाली, बहरी।

अरी व्याधि की सूत्र-धारिणी-
अरी आधि, मधुमय अभिशाप
हृदय-गगन में धूमकेतु-सी,
पुण्य-सृष्टि में सुंदर पाप।

मनन करावेगी तू कितना?
उस निश्चित जाति का जीव
अमर मरेगा क्या?
तू कितनी गहरी डाल रही है नींव।

आह घिरेगी हृदय-लहलहे
खेतों पर करका-घन-सी,
छिपी रहेगी अंतरतम में
सब के तू निगूढ धन-सी।

बुद्धि, मनीषा, मति, आशा,
चिंता तेरे हैं कितने नाम
अरी पाप है तू, जा, चल जा
यहाँ नहीं कुछ तेरा काम।

विस्मृति आ, अवसाद घेर ले,
नीरवते बस चुप कर दे,
चेतनता चल जा, जड़ता से
आज शून्य मेरा भर दे।"

"चिंता करता हूँ मैं जितनी
उस अतीत की, उस सुख की,
उतनी ही अनंत में बनती जाती
रेखायें दुख की।

आह सर्ग के अग्रदूत
तुम असफल हुए, विलीन हुए,
भक्षक या रक्षक जो समझो,
केवल अपने मीन हुए।

अरी आँधियों ओ बिजली की
दिवा-रात्रि तेरा नतर्न,
उसी वासना की उपासना,
वह तेरा प्रत्यावत्तर्न।

मणि-दीपों के अंधकारमय
अरे निराशा पूर्ण भविष्य
देव-दंभ के महामेध में
सब कुछ ही बन गया हविष्य।

अरे अमरता के चमकीले पुतलो
तेरे ये जयनाद
काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि
बन कर मानो दीन विषाद।

प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित
हम सब थे भूले मद में,
भोले थे, हाँ तिरते केवल सब
विलासिता के नद में।

वे सब डूबे, डूबा उनका विभव,
बन गया पारावार
उमड़ रहा था देव-सुखों पर
दुख-जलधि का नाद अपार।"

"वह उन्मुक्त विलास हुआ क्या
स्वप्न रहा या छलना थी
देवसृष्टि की सुख-विभावरी
ताराओं की कलना थी।

चलते थे सुरभित अंचल से
जीवन के मधुमय निश्वास,
कोलाहल में मुखरित होता
देव जाति का सुख-विश्वास।

सुख, केवल सुख का वह संग्रह,
केंद्रीभूत हुआ इतना,
छायापथ में नव तुषार का
सघन मिलन होता जितना।

सब कुछ थे स्वायत्त,विश्व के-बल,
वैभव, आनंद अपार,
उद्वेलित लहरों-सा होता
उस समृद्धि का सुख संचार।

कीर्ति, दीप्ती, शोभा थी नचती
अरूण-किरण-सी चारों ओर,
सप्तसिंधु के तरल कणों में,
द्रुम-दल में, आनन्द-विभोर।

शक्ति रही हाँ शक्ति-प्रकृति थी
पद-तल में विनम्र विश्रांत,
कँपती धरणी उन चरणों से होकर
प्रतिदिन ही आक्रांत।

स्वयं देव थे हम सब,
तो फिर क्यों न विश्रृंखल होती सृष्टि?
अरे अचानक हुई इसी से
कड़ी आपदाओं की वृष्टि।

गया, सभी कुछ गया,मधुर तम
सुर-बालाओं का श्रृंगार,
ऊषा ज्योत्स्ना-सा यौवन-स्मित
मधुप-सदृश निश्चित विहार।

भरी वासना-सरिता का वह
कैसा था मदमत्त प्रवाह,
प्रलय-जलधि में संगम जिसका
देख हृदय था उठा कराह।"

"चिर-किशोर-वय, नित्य विलासी
सुरभित जिससे रहा दिगंत,
आज तिरोहित हुआ कहाँ वह
मधु से पूर्ण अनंत वसंत?

कुसुमित कुंजों में वे पुलकित
प्रेमालिंगन हुए विलीन,
मौन हुई हैं मूर्छित तानें
और न सुन पडती अब बीन।

अब न कपोलों पर छाया-सी
पडती मुख की सुरभित भाप
भुज-मूलों में शिथिल वसन की
व्यस्त न होती है अब माप।

कंकण क्वणित, रणित नूपुर थे,
हिलते थे छाती पर हार,
मुखरित था कलरव,गीतों में
स्वर लय का होता अभिसार।

सौरभ से दिगंत पूरित था,
अंतरिक्ष आलोक-अधीर,
सब में एक अचेतन गति थी,
जिसमें पिछड़ा रहे समीर।

वह अनंग-पीड़ा-अनुभव-सा
अंग-भंगियों का नत्तर्न,
मधुकर के मरंद-उत्सव-सा
मदिर भाव से आवत्तर्न।

--- जयशंकर प्रसाद (Jaishankar Prasad)

भिक्षुक (Bhikshuk) by Nirala

वह आता--
दो टूक कलेजे के करता पछताता
पथ पर आता।

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को-- भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता--
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।

साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,
बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाये।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?--
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए!